सभी क्षत्रियो का ह्रदय गहराईयों से आभार ओर आपके विस्वास को नमन जिन्होंने सम्पूर्ण भारत के इस महासमर भूमि शिविर को सफल बनाने के लिय अपनी जीवन का एक क्षण रक्त की एक बूंद अर्थ की एक पाई भाव का एक अंश भी दिया हो जो शारीरक रूप से पधारे जम्मूकश्मीर से कन्या कुमारी तक जिनका रजिस्ट्रेसन स्थान के अभाव मे रोक गया उनसे क्षमा चाहते है
यह मंच आपको सच्चे व् शोध पूर्ण इतिहास की जानकारी देने के साथ साथ,कर्मधारा के द्वारा सम्पूर्ण क्षत्रियत्व निर्माण के लिए दृढ़सकंल्पित है यहा आपको भले ही कम पोस्ट नजर आये पर जो आएगी वो समाज हितकारी होगी यह सगठन राजपूत मात्र की सेवा के लिए समर्पित है एक मात्र सगठन है जो बिना पद और राजनीति के समाज हित में लगा है
Wednesday, December 30, 2015
महासमर 2015
सभी क्षत्रियो का ह्रदय गहराईयों से आभार ओर आपके विस्वास को नमन जिन्होंने सम्पूर्ण भारत के इस महासमर भूमि शिविर को सफल बनाने के लिय अपनी जीवन का एक क्षण रक्त की एक बूंद अर्थ की एक पाई भाव का एक अंश भी दिया हो जो शारीरक रूप से पधारे जम्मूकश्मीर से कन्या कुमारी तक जिनका रजिस्ट्रेसन स्थान के अभाव मे रोक गया उनसे क्षमा चाहते है
Wednesday, December 16, 2015
राजपूताने का शौर्यपूर्ण इतिहास
देश (भारत) की आजादी के पूर्व राजस्थान
19 देशी रियासतों में बंटा था, जिसमें अजमेर केन्द्रशासित प्रदेश था।
इन रियासतों में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा,
प्रतापगढ़ और शाहपुरा में गुहिल, जोधपुर,
बीकानेर और किशनगढ़ में राठौड़ कोटा और बूंदी में हाड़ा चौहान, सिरोही में देवड़ा चौहान, जयपुर और अलवर
में कछवाहा, जैसलमेर और करौली में यदुवंशी एवं
झालावाड़ में झाला राजपूत राज्य करते थे। टोंक में मुसलमानों एवं भरतपुर तथा धौलपुर
में जाटों का राज्य था। इनके अलावा कुशलगढ़ और लावा की चीफशिप थी। कुशलगढ़ का
क्षेत्रफल 340 वर्ग मील था। वहां के शासक राठौड़ थे। लावा का क्षेत्रफल केवल 20वर्ग
मील था। वहां के शासक नरुका थे।
राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुए
सुप्रसिद्ध इतिहाससार कर्नल टॉड ने अपने ग्रंथ ""अनाल्स एण्ड
अन्टीक्कीटीज आॅफ राजस्थान'' में कहा है, ""राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपली न हो और ऐसा
कोई नगर नहीं, जिसने अपना लीयोनाईड्स पैदा नहीं किया हौ।'' टॉड
का यह कथन न केवल प्राचीन और मध्ययुग में वरन् आधुनिक काल में भी इतिहास की कसौटी
पर खरा उतरा है। 8वीं शताब्दी में जालौर में प्रतिहार और मेवाड़ के गुहीलोत अरब
आक्रमण की बाढ़ को अपना सर्वस्व लुटा कर न रोकते तो सारे भारत में अरबों आक्रन्तावो की तूती
बोलती । मेवाड़ के रावल जैतसिंह ने सन् 1234 में दिल्ला के सुल्तान इल्तुतमिश और
सन् 1237 में सुल्तान बलबन को करारी हार देकर अपनी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा की।
सन् 1303 में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशान सेना के साथ मेवाड़ की राजधानी
चित्तौड़ पर हमला किया। चित्तौड़ के इस प्रथम शाके हजारों वीर वीरांगनाओं ने
मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने आपको न्यौछावर कर दिया, पर
खिलजी किले पर अधिकार करने में सफल हो गया। इस हार का बदला सन् 1326 में राणा हमीर
ने चुकाया, जबकि उन्हूने खिलजी के ग़ुलामशासक मालदेव चौहान
और दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक की विशाल सेना को हराकर चित्तौड़ पर पुन: मेवाड़
की पताका फहराई।
15वीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ का
राणा कुम्भा उत्तरी भारत में एक प्रचण्ड शक्ति के रुप में उभरा। उसने गुजरात,
मालवा, नागौर के सुल्तान को अलग-अलग और संयुक्त
रुप से हराया। सन् 1508 में राणा सांगा ने मेवाड़ की बागडोर संभाली। सांगा बड़ा
महत्वाकांक्षी थे। वह दिल्ली में अपनी पताका फहराना चाहता थे। समूचे राजपूताने को एकताबद्ध
स्थापित करने के बाद उसने दिल्ली, गुजरात और मालवा के सुल्तानों को
संयुक्त रुप से हराया। सन् 1526 में फरगाना के शासक उमर शेख मिर्जा के पुत्र बाबर
ने पानीपत के मैदान में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकर कर लिया।
सांगा को विश्वास था कि बाबर भी अपने पूर्वज तैमूरलंग की भांति लूट-खसोट कर अपने
वतन लौट जाएगा, पर सांगा का अनुमार गलत साबित हुआ। यही
नहीं, बाबर सांगा से मुकाबला करने के लिए आगरा से
रवाना हुआ। सांगा ने भी समूचे राजस्थान की सेना के साथ आगरा की ओर कूच किया। बाबर
और सांगा की पहली भिडन्त बयाना के निकट हुई। बाबर की सेना भाग खड़ी हुई। बाबर ने राणासांगा
से सुलह करनी चाही, पर सांगा आगे बढ़तेही गये। तारीख 17
मार्च, 1527 को खानवा के मैदान में दोनों पक्षों में
घमासान युद्ध हुआ। मुगल सेना के एक बार तो छक्के छूट गए। किंतु इसी बीच दुर्भाग्य
से सांगा के सिर पर एक तीर आकर लगा जिससे वह मूर्छित होकर गिर पडे। उसे युद्ध
क्षेत्र से हटा कर बसवा ले जाया गया। इस दुर्घटना के साथ ही लड़ाई का पासा पलट गया,
बाबर विजयी हुआ। वह भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने में सफल
हुआ, स्पष्ट है कि मुगल साम्राज्य की स्थापना में
पानीपत का नहीं वरन् खानवा का युद्ध निर्णायक था।
खानवा के युद्ध ने मेवाड़ की कमर तोड़
दी। अब राजस्थान का नेतृत्व मेवाड़ शिशोदियों के हाथ से निकल कर मारवाड़ के राठौड़
मालदेव के हाथ में चला गया। मालदेव सन् 1583 में मारवाड़ की गद्दी पर बैठे। उह्हूने
मारवाड़ राज्य का भारी विस्तार किया। इस समय शेरशाह सूरी ने बाबर के उत्तराधिकारी
हुमायूं को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने राजस्थान में मालदेव की
बढ़ती हुई शक्ति देखकर मारवाड़ के निकट सुमेल गांव में शेरशाह की सेना के ऐसे दाँत
खट्टे किये कि एक बार तो शेरशाह का हौसला पस्त हो गया।इस युद्ध में राव जेता और
कुपा ने केवल 5000 सेनिको की सहायता से 7 घंटे के समय मुगल सेना के 45000 सेनिको
को गाजर मुली की तरह काट दिया था परन्तु
अन्त में शेरशाह छल-कपट से जीत गया। तभी तो मारवाड़ से लौटते हुए शेरसाह को यह कहने
के लिए मजबूर होना पड़ा - ""खैर हुई वरना मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं
हिन्दुस्तान की सल्तनत खो देता।''
सन् 1555 में हुमायूं ने दिल्ली पर
पुन: अधिकार कर लिया। पर वह अगले ही वर्ष मर गया। उसके स्थान पर अकबर बादशाह बना।
उसने मारवाड़ पर आक्रमण कर अजमेर, जैतारण, मेड़ता
आदि इलाके छीन लिए। मालदेव स्वयं 1562 में स्वर्गीय हो गये। उनकि मृत्यु के
पश्चात् मारवाड़ का सितारा अस्त हो गया। इसके बाद अकबर और महाराणा प्रताप का शोर्य
युग आरम्भ हुया और हुआ हल्दीघाटी का महान संग्राम जिसमे रामशाह तवर की पाच पीढ़ियों
ने अपना बलिदान दिया और राणा की तलवार से आदमखोर बहलोल खा घोड़े सहित दो टुकडो में
विभक्त हुआ ऐसा विश्व के किसी भी युद्ध में नहीं हुया हालाकि इस युध्ह के परिणाम
महाराणा के विपरीत रहे पर विश्व के इतिहास जब जब भीषणतम युद्धों का जिक्र होगा तो
हल्दीघाटी के बिना अधुरा रहेगा
अकबर की भारत विजय में केवल मेवाड़ का महाराणा प्रताप
बाधक बने रहे। अकबर ने सन् 1576 से 1586तक पूरी शक्ति के साथ मेवाड़ पर कई आक्रमण
किए, पर
उसका राणा प्रताप को अधीन करने का मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ और महाराणा ने धीरे धीरे
70 % मेवाड़ अपने वापस अधीन कर लिया था स्वयं अकबर प्रताप की देश-भक्ति और दिलेरी
से इतना प्रभावित हुआ कि प्रताप के मरने पर उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने
स्वीकार किया कि विजय निश्चय ही गहलोत महाराणा की हुई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि
देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रताप
जैसे नर-पुंगवों के जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर अनेक देशभक्त
हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गए।
Thursday, December 3, 2015
समरभूमि बगरू जय राजपूतना संघ
समर
भूमि का आयोजन 26 से 28 दिसम्बर 2014 को बगरू में हुआ..इसमें
11 राज्यों से 250 व् राजस्थान को मिलाकर 500से अधिक समर योद्धाओं ने भाग लिया समर भूमिका आयोजन कई
मायनो में सफल रहा इसमें इतिहास को
पुनर्लेखन की भी शुरुवात हुयी जिसके तहत भाई येश पुंडीर की शोधपूर्ण पुस्तक क्षत्रिय
राजपूत इतिहास परिचय का विमोचन भी ब्रिगेडियर
प्रताप सिंह जी व् चन्देल साब येशपाल राना व् समस्त समर योद्धावो के हाथो हुया समर
भूमिमें कर्मधारा कितनी प्रज्वलित हुई
इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जासकता है” वहा 250 से अधिक समर योद्धाओं
ने शराब
मांसहार नहीं खाने दहेज नहीं
लेने और चारित्रिक पतन नहीं करने की शपथ ली”.समर भूमि वास्तविकरूप से शस्त्र शास्त्रऔर संस्कार की निर्माण की
कर्मभूमि बना समर भूमि शिविर पूर्ण रूप से
क्षत्रित्व निर्माण का साक्ष रहा और रहेगाऔरसमर योद्धावो के जोश का अंदाजा इस बात
दिसम्बर की कड़ाके की सर्दी में भी सुबह पाच बजे उठ कर शीतल ताजातरीन जलसे खुले
स्नान कर लेते थे
आगे से ये शिवि
र “सम्पूर्ण क्षत्रित्व निर्माणशिविर” के नाम से जाने जायेंगे इसके लिए आप सभी को साधूवाद अभी आगे समर भूमि शिविर आयोजित करने के लिए6 राज्यों(राजस्थान को छोड़कर) में समरभूमि शिविर आयोजित करने के लिए समय डेट लेने का समर होरहा है.भाईयो जय राजपुतानासंघ के साथ हम चलकर हमविचार शक्ति को कर्मवाद के साथ मिलाकर परिणाम तय करना सीखते है जो की हमारा पुरातन ज्ञान था . भाईयो आवो और साथ मिलकर कर्मधारा से इतिहास बनाये
आगे से ये शिवि
र “सम्पूर्ण क्षत्रित्व निर्माणशिविर” के नाम से जाने जायेंगे इसके लिए आप सभी को साधूवाद अभी आगे समर भूमि शिविर आयोजित करने के लिए6 राज्यों(राजस्थान को छोड़कर) में समरभूमि शिविर आयोजित करने के लिए समय डेट लेने का समर होरहा है.भाईयो जय राजपुतानासंघ के साथ हम चलकर हमविचार शक्ति को कर्मवाद के साथ मिलाकर परिणाम तय करना सीखते है जो की हमारा पुरातन ज्ञान था . भाईयो आवो और साथ मिलकर कर्मधारा से इतिहास बनाये
Wednesday, October 14, 2015
इतिहास को जानने के मूल आधार
जब हम ऐतिहासिकता का कोई भी दावा करते है तो सर्वप्रथम ये बात आती है की उक्त जानकारी का क्या आधार है कहा से ली हुई है बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ रहा की अधिकाँश युवा केवल सोशल मिडिया पर शेयर की हुयीआधी अधूरी जानकारी को ही परम सत्य मान लेते है जबकि इतिहास को जानना एक धेर्यपूर्ण समय और धन खर्चकरने वाला काम है कुछ युवा इसकेलिए तेयार भी पर उनके सामने ये समस्या खड़ी हो जाती है की वो कहा से शुरूकरें ? ओर केसे ???? उन्ही सब को थोड़ी जानकारी देने का प्रयास किया है आज लगभग 100 वर्षपूर्व लिखे अथवा लिखवाये गये राजकीय, अर्द्ध राजकीय
पुरालेखा का वर्गीकरण : पुरालेखा सामग्री, संस्थागत अवस्थापन की दृष्टि से पुरातत्व रिकार्ड, प्राच्च विद्या रिकार्ड, तथा अभिलेख रिकार्ड में वर्गीकृत हैं।
सामग्री के अनुसार : शिलालेख और ताम्रपत्र पुरातत्वालय में संग्रहित किये जाते हैं।
प्राच्च विद्या संस्थानों में प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ, ताड़-पत्र और चर्म-पणाç के लेख, कलम-चित्र, नक्शे आदि संग्रह किये जाते हैं।
वहां अभिलेखागारों में राज्य पुरालेखा सामग्री, अन्य संस्थागत पुरालेखा सामग्री तथा लोक लिखित पुरालेखा सामग्री संकलित की जाती है।
राजस्थान में पुरालेखा स्रोत का विशाल संग्रह राज्य अभिलेखागार बीकानेर और उसके अधीन विभिन्न वृत अथवा जिला अभिलेखागारों में सुरक्षित है।
सम्पूर्ण अभिलेख सामग्री को राजकीय संग्रह तथा संस्थागत या निजी सामग्री को व्यक्तिगत संग्रह के रुप में विभाजित करते हुए फारसी, उर्दू, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा लिखित पुरालेखा साधन में उपवर्गीकृत किया जा सकता है -
फारसी/उर्दू भाषा लिखित पुरालेखा सामग्री जिसमें फरमान मूसूर, रुक्का, निशान, अर्जदाश्त, हस्बुलहुक्म, रम्ज, अहकाम, सनद, इन्शा, रुकाइयत, वकील रिपोर्ट और अखबारात प्राप्त होते हैं।
राजस्थानी/हिन्दी भाषा में पट्टे-परवानें, बहियां, खरीते, खतत्, अर्जियां, हकीकत, याददाश्त, रोजनामचे, गांवों के नक्शे, हाले-हवाले, चिट्ठिया, पानडी अखबार बाकीबात डायरी आदि मुख्य हैं।
अंग्रेजी भाषा में लिखी अथवा छपी गई पुरालेखा में राजपूताना एजेन्सी रिकॉर्ड, रिकॉर्डस् आॅफ फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेन्ट, ट्यूर रिपोर्ट मेमाईस तथा पत्रादि संकलन के साथ-साथ मेवाड़ और मारवाड़ प्रेसींज के रुप में संकलित सामग्री उपलब्ध है
उपर्युक्त सामग्री क्षेत्र अथवा प्राचीन रजवाड़ों के सम्बन्धानुसार निम्न रुप में भी जानी जाती ह
-जोधपुर रिकॉर्ड,
बीकानेर रिकॉर्ड अथवा मारवाड़ रिकॉर्डस्
जयपुर रिकॉर्ड
कोटा रिकॉर्ड अथवा हाड़ौती रिकॉर्डस
उदयपुर रिकॉर्ड अथवा मेवाड़ रिकॉर्डस
पुरालेखा संग्रह का काल
भारत में पुरालेख संग्रह का काल वस्तुत: मुस्लिम शासकों की देन है। केन्द्रीय शासन का प्रान्तों और जिलों से तथा जिला इकाईयों का प्रांतीय प्रशासन और केन्द्र से पत्र व्यवहार, प्रशासनिक रिकॉर्ड, अभिदानों का वर्णन आदि हमें १३वीं शताब्दी से मिलने लगते हैं, किन्तु व्यवस्थित रुप में पुरालेखा सामग्री मुगलकाल और उसके पश्चात प्राप्त होती है। ब्रिटिश काल तो प्रशासनिक कार्यालयों पर आधारित था। अत: इस काल का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। राजस्थान में मुगल शासकों के प्रभाव तथा उनसे प्रशासनिक सम्बन्धों के कारण १६वीं शताब्दी के पश्चात् विभिन्न राज्यों में राजकीय पत्रों और कार्यवाहियों को सुरक्षित रखने का कार्य प्रारम्भ हुआ। मालदेव, मारवाड़ राज्य का प्रथम प्रशासक था, सम्भवत: जिसने मुगल बादशाह हुमायुं के पुस्तकलाध्यक्ष मुल्ला सुर्ख को रिका र्ड संग्रह अथवा पुस्तक संग्रह हेतु अपने राज्य में नियुक्त किया था। १५६२ ईं. से आमेर के राजघराने और १५१० ई. तक राजस्थान के अधिकांश शासकों ने मुगल शासक अकबर के समक्ष समपंण कर दिया था। उसके पश्चात वे मुगल प्रशासन में मनसबदार, जागीरदार आदि बनाये गये। इस प्रकार राजस्थान के राजघरानों में उनके और मुगल शासन के मध्य प्रशासनिक कार्यवाहियों का नियमित रिकॉर्ड रखा जाने लगा। ऐसे ही राज्यों और उनके जागीरदारों के मध्य भी रिकॉर्ड जमा हुआ। यह रिकॉर्ड यद्यपि १८-१९वीं शताब्दी में मराठा अतिक्रमणों, पिंडारियी की लूट-खसोट में नष्ट भी हुआ, किन्तु १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से रियासतों के राजस्थान राज्य में विलय होने तक का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में मिलता है। इसे रियासतों द्वारा राजस्थान सरकार को राज्य अभिलेखागार हेतु समर्पित कर दिया गया, फिर भी जागीरों के रिकॉर्ड तथा अन्य लोकोपयोगी पुरालेखा सामग्री भूतपूर्व राजाओं के पास अभी भी पड़ी हुई है।
संग्रह - सामग्री
१५८५ ई. से १७९९ ई. के मध्य दिल्ली बादशाहों द्वारा लिके गये १४० फरमान, १८ मन्सूर तथा १३२ निशान जयपुर रिकॉर्ड में सुरक्षित थे। ३ निशान, ३७ फरमान जोधपुर रिकॉर्ड में तथा १ फरमान, ८ निशान सिरोही रिकॉर्ड में सुरक्षित थे। यह सामग्री अब राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर में संरक्षित की हुई है। फारसी/उर्दू लिखित पुरालेखा सामग्री निम्नलिखित है :
फरमान और मन्सूर
निशान
अर्जदाश्त
हस्बुलहुक्म
रम्ज और अहकाम
सनद
परवाना
रुक्का
दस्तक
वकील रिपोर्ट
अखबारात
1 फरमान और मन्सूर
बादशाह (शासक) द्वारा अपने सामन्तों, शहजादों, शासकों या प्रजा के स्वयं अथवा अन्य से लिखवाकर भेजा जाता था। इन पत्रों पर तुगरा या राजा का पंजा (हथेली का चिन्ह) लगा रहता था।
2 निशान
निशान नामक पत्र शहजादी या बेगमों द्वारा बादशाह के अतिरिक्त अन्य से लिखे गये पत्र कहलाते थे। जहाँगीर के शासनकाल में नूरजहां द्वारा भेजे गए निशानों पर जहाँगीर का नाम होता था, किन्तु उस पर नूरजहां की मुद्रा अंकित होती थी। इसको बेगम की मोहर कहा जाता था।
3 अर्जदाश्त
यह प्रजा द्वारा शासकों या शहजादों द्वारा बादशाह को लिखे जाने वाले पत्र थे। यदि ऐसी अर्जदाश्तों में विजय के संदेश प्रेषित होते तो इन्हें फतेहनामा कहा जाता था।
4 हस्बुलहुक्म
बादशाह की आज्ञा से बादशाही आज्ञा की सूचना देने के लिए मंत्री (वजीर) अपनी ओर से लिखता था।
5 रम्ज और अहकाम
बादशाहों द्वारा अपने सचिव को लिखवाई गयी कुछ टिप्पणियां विशेष कहलाते थे, जिनके आधार पर सचिव पूरा पत्र तैयार करता था।
6 सनद
पत्र नियुक्ति अथवा अधिकार हेतु प्रदान किया जाता था।
7 परवाना
अपने से छोटे अधिकारी को लिखा गया प्रशासनिक पत्र था।
8 रुक्का
निजी पत्र की संज्ञा थी, परवर्ती काल में राजा की ओर से प्राप्त पत्र को खास रुक्का कहा जाने लगा था।
9 दस्तक
के आधार पर लोग सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ला-लेजा सकते थे, दरबार अथवा शिविर प्रवेश के लिए भी दस्तक एक प्रकार से आधुनिक "परमिट' या "पास' था।
10 वकील रिपोर्ट
प्रत्येक राज्यों से बादशाही दरबार में वकील नियुक्त होते थे, यह अपने शासकों के हितों की रक्षा तथा सूचना भेजते थे। इसके द्वारा लिखी सूचनाएं वकील रिपोर्ट कहलाती है।
11 अखबारात
इसी प्रकार राज्य और दरबार की कार्यवाहियों की प्रेसिडिस को अखबारात कहा जाता था।
राजस्थानी भाषा लिखित पुरालेख सामग्री
राजस्थानी भाषा लिखित पुरालेख सामग्री में महाजनी, मोड़ी हाडौती, मेवाड़ी आदि लिपि में लिखित राजस्थानी भाषा के परवाने खरीते, अर्जियां, चिट्ठियां, पानड़ी ऐसे फुटकर पत्र है, जिनमें राजस्थान के शासकों, अधिकारियों, ग्राम कर्मचारियों आदि का पारस्परिक व्यवहार स्पष्ट होता है। इस व्यवहारगत अध्ययन से इतिहास विषयक सामग्री भी प्राप्त होती है।
राजस्थानी भाषा में लिखित अन्य प्रमुक इतिहास स्रोत विभिन्न राजपूत राज्यों में लिखी गई बहियां हैं, इन बहियों को लिखने की प्रथा कबसे आरंभ हुई इसका सही समय बतलाना कठिन है, किंतु सबसे प्राचीन बही जो प्राप्त होती है वह राणा राजसिंह (१६५२-१६८० ई.) के समय की है, इसके पश्चात् दूसरी प्राचीन महत्वपूर्ण बही ""जोधपुर हुकुमत री बही'' है।
प्रथम बही राणा राजसिंह के काल में मेवाड़ राज्य के परगनों की स्थिति। उनकी वार्षिक आमदनी तथा अन्य प्रकार के हिसाब-किताब की है, दूसरी बही मुगल बादशाह शाहजहां की बीमारी से ओरंगजेब की मृत्यु तक महाराजा जसवंतसिह के संदर्भ में कई राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का उल्लेख करती है। इस प्रकार १७वीं शताब्दी के राजस्थान को जानने में दोनों बहियां अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
पट्टा, पट्टा का अर्थ होता है "घृति' जो प्रदत्त की हुई हो और ऐसी प्रदत्त जागीर, जमीन, खेत, दृव्य, रुपया-पैसा अथवा राज्य इच्छानुसार भवन किराया, राज्य चुंगी दाण और लागत का अंश आदि होती थी। यह प्रदत्तियां पत्राधिकार अथवा ताम्रपत्र द्वारा प्रदान की जाती थी। इनकी प्रतिलिपियां पट्टा बहियों में अंकित होती थी। इस तरह पट्टा और पट्टा बहियों से राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है।
बहियों का विषय विभाजन का कार्य वैज्ञानिक रुप से पूर्ण नही हो पाया है, फिर भी शोधार्थियों द्वारा प्रयुक्त तथा निजी या राज्य अभिलेखागार में रखी गई बहियों के वर्गीकरण के आधार पर बहियों को निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं-
कोटा राज्य के रिकॉर्ड
बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड
जयपुर राज्य के रिकॉर्ड
जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड
अन्य
1 कोटा राज्य के रिकॉर्ड
यह रिकॉर्ड १७वीं शताब्दी से २०वीं शताब्दी तक की राजकीय गतिविधियों का विवरण प्रदान करती हैं। इनमें मेहमानी बही वि.सं. १८४१-४४, मिजलिस खर्च बही वि.सं. १७३०, मामलिक खर्च इत्यादि बहियां, कपड़ो की किस्म, उनके मूल्य, कोटा के दरवाजों के निर्माण तथा मरम्मत और महलों व बागों के रख-रखाव निर्माण का हिसाब बतलाती है। इसके अतिरिक्त कोटा के शासकों का मुगल और मराठाओं से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक सम्बन्धों का विस्तृत वर्णन भी उपलब्ध होता है।
2 बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड
बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड "पटाका बहियां' वि.सं. १६२४ से १८०० तक राज्य के राज का हिसाब बतलाती है। इसीक्रम में आर्थिक विवरण प्रस्तुत करने वाली बहियों में पट्टा बही, रोकड़ बही, ॠण बही, हॉसल बही, ब्याज बही, कमठाणा बही आदि मुख्य है। इन बहियों से राज्य की आर्थिक स्थिति के साथ-साथ मुद्रा-मूल्याकंन, कृषि की दशा, प्रजा की दशा, मजदूरी, बाजार मूल्य, जातियों का सामाजिक और आर्थिक स्तर आदि कई विषयों का ज्ञान होता है। ग्राम व्यवस्था, किसानों की स्थिति, आवागमन के साधन और किराया आदि पर प्रकाश डालने वाली बहियों में कागदो की बही, जैतपुर बही, व राजपूत जागीरदारी, शासकों तथा मुस्लिम शासकों से विवाह आदि सामाजिक संस्कारों का उल्लेख करने वाली "ब्याव बही' सामाजिक इतिहास के संदर्भ में अत्यन्त उपयोगी है।
3 जयपुर राज्य के रिकॉर्ड
जयपुर रिकॉर्ड में सीहा हजूर नामक स्रोत एक प्रकार से दैनिक हिसाब के आमद-खर्च को बतलाने वाली डायरियां हैं। यह खुले पत्रों में लिखी वार्षिक बण्डलों के रुप में बंधी हुई है। वि.सं. १७३५ से वि.सं. २००६ तक इनमें राजसी वस्राभूषणों, त्यौहार पवाç आदि का वर्णन है, इसी प्रकार दैनिक कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाली बहियों में ताजी रिकॉर्ड बहियां मुख्य हैं। यह ढूंढाड़ी लिपि में लिखी हुई है। १८वीं और १९वीं शताब्दी के इतिहास को प्रस्तुत करने में सहायक है। पोतदार रोजनामचा, पीढा रोजनामचा जयपुर शहर के नियोजन तथा लोगबाग पर प्रकाश डालते हैं। ३२ खण्डों में वेष्टित राजलोक का विस्तृत आर्थिक रिकॉर्ड "दस्तूर कोमवार' नाम से जाना जाता है। यह रिकॉर्ड तोजी रिकॉर्ड पर आधारित है। इनसे जातियों, व्यवसायों, विशिष्ट सुविधाओं आदि का ज्ञान भी प्राप्त होता है।
"दस्तूर उल-अमल' से भी सामाजिक स्थितियों पर प्रकाश पड़ता है, वहीं उनसे भू-राज के मूल्य लाग-बाग की जातिगत वसूली आदि कृषि और पंचायत व्यवस्थाओं की जानकारी भी मिलती है।
"कपड़द्वारा' पत्रों से भी सामाजिक धार्मिक परिस्थितियों के साथ राजनीतिक-आर्थिक व्यवहारों का दिग्दर्शन होता है। न्याय सभा अथवा सिहा अदालती पत्रों से जयपुर राज्य की न्याय व्यवस्था, अपराध, दण्ड तथा सुधारों के प्रांत राज्य की न्याय व्यवस्था की कार्यवाहियों का अध्ययन किया जा सकता है। निरख बाजार रिकॉर्ड (१७६०-१८१५ ई.) कस्बों, परगनों का बाजार भाव मालूम करने के लिए उपयोगी है।
4 जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड
जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड में ओहदा बही में अधिकारियों के अधिकार वृद्धि करने अथवा कम करने, शिकायतों, ईनाम आदि आज्ञाओं का उल्लेख है।
"पट्टा बही' में राजस्थान के सभी राजपूत राज्यों के अनुरुप भूमि पट्टों की मूल प्रतियां विद्यमान हैं। इन बहियों से राजपूत शासकों की धार्मिक वृत्ति, सहिष्णु नीति और उदार व्यवहार का पता चलता है।
"हथ बही' में शासकों के निजी संस्मरणों, गुप्त मंत्रणाओं और धार्मिक कार्यों का उल्लेख है। इन बहियों में सामाजिक-आर्थिक इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास की सामग्री संग्रहित है, उदाहरणार्थ वि.सं. १८३७ की एक बही में गंगा शुरु द्वारा राज परिवार हेतु गंगाजल की कावड़ पहुंचाने तथा उसके लाने की मजदूरी के रुप में ३० रुपया व्यय किया गया था इत्यादि।
"हकीकत बही' से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक विषयों का दैनिक तिथिवार वर्णन प्राप्त होता है। राज्य के परगने तथा उनकी स्थिति, अधिकारियों की प्रचलित पदवी, उद्बोधन, पुलिस, डाक और यातायात प्रबन्ध, आयात-निर्यात होने वाली वस्तुएं इत्यादि कई विषय इसमें समाहित हैं। स्वतन्त्रता का योगदान, जागीरदारी और शासकों की मनोवृत्तियां अंग्रेजों से संबंध आदि पर भी यह बहियां तिथि युक्त ब्यौरे प्रदान करती हैं।
5 अन्य
इन बहियों के अतिरिक्त हकीकत खतूणियां खजाना बही, खजाना चौपन्या, पट्टा खतूणी, और जालौर रिकॉर्ड की छेरा की बही मारवाड़ के इतिहास हेतु अच्छे अभिलेख साधन है।
अंग्रेजी भाषा में लिखी अथवा छपी हुई सामग्री राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में संकलित है। यह सामग्री तीन भागों में विभाजित है -
रिकॉर्डस् आॅफ द फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेंट
राजपूताना एजेंसी रिकॉर्डस्
विविध श्रृंखलाबद्ध रिकॉर्डस्
1 रिकॉर्डस् आॅफ द फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेंट
इन रिकॉर्डस् में दफ्तरी पत्र व्यवहार है। गवर्नर जनरल तथा उसकी कोंसिल के सदस्यों द्वारा प्रस्तावित प्रस्ताव, स्मरण पत्र, मांग पत्र आदि का लेखा और गवर्नर जनरल, गवर्नर जनरल के एजेन्टों तथा विभिन्न रजवाड़ों में नियुक्त पोलीटिकल ऐजेन्टों के प्रशासनिक, अर्द्ध प्रशासनिक इत्यादि पारस्परिक पत्र-व्यवहारों का संकलन इस श्रेणी में रखा हुआ है।
2 राजपूताना एजेंसी रिकॉर्डस्
रिकॉर्ड में राजा-महाराजाओं और पोलीटिकल एजेन्टों के मध्य की प्रशासनिक कार्यवाहियों, पोलिटिकल एजेन्टों का ए.जी.जी. और गवर्नर जनरल के मध्य राजपूताना सम्बन्धी सामाजिक, आर्थिक सुधारों के प्रति की गई कार्यवाहियों राजनीतिक परामशों के साथ-साथ एजेन्टों की डायरियां आदि विषयों की संकलित किया हुआ है।यह रिकॉर्डस जहां राजस्थान के १८वीं से २०वीं शताब्दी तक राजनीतिक स्थिति का ब्यौरा प्रदान करते हैं, वहीं दरबारी आचरण, जागीरदारों के पारस्परिक मतभेद, सामाजिक कुरीतियों एवं आर्थिक व्यवस्थाओं को भी प्रस्तुत करते हैं।
3 विविध श्रृंखलाबद्ध रिकॉर्डस्
रिकॉर्ड विविध विषयों के वे संकलित पत्र हैं जो यात्रा विवरण, याददाश्तों पुरस्कार सम्मान आदि का हवाला देते हैं।
राजस्थानी ख्यात-साहित्य
राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ साहित्य राजस्थान के इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीन राजस्थानी साहित्य का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रुप में इतिहास से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। यह साहित्य संस्कृत प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, डिंगल, पींगल भाषा अथवा राजस्थान की विभिन्न बोलियों में लिखा हुआ मिलता है। साहित्य, जैन साहित्य, संत साहित्य, लोक साहित्य और फुटकर-साहित्य एवं ब्राह्मण साहित्य, चारण साहित्य में लेखकीय प्रवृतियों को वर्गीकृत किया है।
किन्तु इतिहास की दृष्टि से डॉ. रघुवीर सिंह ने साहित्य को चार भागों में वर्गीकृत किया है -
ख्यात, वंशावलियों तथा इसी प्रकार का साहित्य।
गद्य में लिखी हुई जीवन कथायें; जो ऐतिहासिक महत्व की हैं।
संस्कृत, डिंगल तथा पींगल रचित पद्यात्मक ग्रन्था जिनमें किसी शासक विशेष या वंश विशेष का विवरण है।
अन्य रचनाएं जो अप्रत्यक्ष राजस्थान के इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रकाश डालती है।
राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ यह साहित्य पुनश्च: वंशावलियों, पीढियावली, पट्टावली, विगत वचनिका, दरावत, गतश्त्यात आदि के अंतर्गत विभाजित है।
वंशावलियों में विभिन्न वंशों के व्यक्तियों की सूचियां प्राप्त होती है। इन सूचियों में वंश के आदि पुरुष तक पीढ़ीवार वर्णन भी प्राप्त होता है। वंशावलियां और पीढियावलियां अधिकतर "भाटीं' के द्वारा लिखी हुई हैं। प्रद्वेस राजवंश तथा सामन्त परिवार इस (भाट) जाति के व्यक्ति का यजमान होता था।
बड़वा-भाटी का राज्य में सम्मान होता था एवं शासकों द्वारा इन्हें "राव' आदि के विरुद्ध दिये हुए थे। मेवाड़ तथा सारवाड़ के संदर्भ में इसके उदाहरण प्राप्त होते हैं कि कतिपय जैन यति भी राज परिवारों की वंशावलियां रखते थे। खरतरगच्छ के जैन यति मारवाड़ राजवंश के कुलगुरु माने जाते थे। राजवंश की वंशावली तैयार करना, शासकों तथा उनके परिवारों के सदस्यों के कार्यकलापों का विस्तृत विवरण रखना आदि उनका मुख्य कार्य रहा था। इस प्रकार वंशावलियां और पिढियावलियां शासकों, सामन्तों, महारानियों, राजकुमारों, मंत्रियों नायकों आदि के साथ-साथ कतिपय मुख्य घटनाओं का विवरण भी उल्लेखित करती है। फलत: इतिहास के व्यक्तिक्रम, घटनाक्रम और संदर्भक्रम के स्रोत की दृष्टि से वंशावलियां महत्वपूर्ण साधन बन जाती है। अमरसात्य वंशावली, सूर्यवंश वंशावली, राणाजी री वंशावली सिसोद वंशावली तवारीख वंशावली इत्यादि इसके उदाहरण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वंशावलियां १६वीं शताब्दी पूर्व से लिखी जाती रही थीं। परंतु उनमें अधिकांश वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं है कि किसी विसिष्ठ व्यक्ति द्वारा एक ही समय में वंशाविलियां लिखी गई थी, अपितु यह लेखन परम्परा भी पैतृक रही थी। इसीलिए अधिकांश वंशावलियों में किसी लेखक का नाम नहीं मिलता है।
वंशावलियों, पीढियावलियों और पट्टावलियों के पश्चात् विगत, हकीगत वचनिका आदि वर्णनात्मक और सूचनात्मक गद्दाविद्या है। इसमें इतिहास की दृष्टि से शासक, शासकीय परिवार, राज्य के प्रमुख व्यक्ति अथवा उनके राजनीतिक, सामाजिक व्यक्तित्व का विवरण मिलता है। आर्थिक दृष्टि से विगत में उपलब्ध आंकड़े आदि तत्कालीन आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और व्यवहारों को समझने एवं इतिहास-प्रभाव हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
विगत हकीगत के वश्चात् बात या वात साहित्य भी राजस्थान में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। बात का शाब्दिक अर्थ है वर्णन अथवा कथा। इस साहित्य की रचना मुख्य रुप से १७वीं और १८वीं शताब्दी में हुई थी। बातें दो प्रकार की होती हैं :-
(१) एक तो ख्लाल में अंग के रुप में अर्थात् जिनका निर्माण इतिहास की दृष्टि से ऐतिहासिक पुरुष या ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर साहित्य सृजन के उद्देश्य से किया गया;
(२) दूसरी प्रकार की बातें ऐतिहासिक तथ्यों से आधार पर कथा कहने की कला के विकाश के पूर में मिलती है।
इस प्रकार बातों में ऐतिहासिक तथ्य गौण और कल्पना तत्व अधिक होता है फिर भी ""अंग विच्छेद'' पद्धति के अनुरुप इन बातों से जहां तथ्य-निरुपण करने में सहायता मिलती रही है, वहीं सामाजिक और संस्कृतिक दशा को जानने हेतु भी यह प्राथमिक स्रोत के रुप में अपना स्थान रखती है।
राजस्थान में उपलब्ध बातों की इतनी प्रचुरता है कि सभी का नाम उल्लेखित करना संभव नहीं है, किन्तु कतिपय महत्वपूर्ण बातों में जगत पंवार की बात, कुवरंसी सांखला की बात, रावलराणाजी री बात आदि के अतिरिक्त कुछ ख्यातें भी बातों का संकलन हैं, ऐसी ख्यातों में नैणसी और बांकीदास की ख्यात मुख्य है।
राजस्थान की गद्य विद्या का अत्यन्त प्रौढ़ और उत्कृष्ट स्वरुप ख्यात साहित्य में विद्यमान है, वहीं इतिहास की दृष्टि से ख्यात में अन्य साहित्य-विद्याओं से अधिक विश्वसनीय, तथ्यात्मक और ऐतिहासिकता का आधार है। इतिहास में इनकी स्रोत भूमिका को देखते हुए कहा जा सकता है कि ख्यात साहित्य इतिहास शोध की अमूल्य निधी है। ख्यात मूलत: संस्कृत भाषा का शब्द है और शब्दार्थ की दृष्टि से इसका आशय ख्यातियुक्त, प्रख्यात, विख्यात, कीर्ति आदि है। किंतु राजस्थान में इसका संदर्भ इतिहास के पर्याय के रुप में प्रयुक्त होता रहा है। इसमें प्रत्येक वंश या विशिष्टि वंश के किसी पुरुष या पुरुषों के कार्यों और उपलब्धियों का हाल मिलता है। ख्यातों का नामांकरण वंश, राज्य या लेखक केनाम से किया जाता रहा है, जैसे - राठौड़ां री ख्यात, मारवाड़ राज्य री ख्यात, शाहपुरा राज्य री ख्यात, नैणसी री ख्यात आदि।
ख्यात - साहित्य का सृजन मुगल बादशाह अकबर के काल से प्रारंभ माना जाता है। अकबर के शासन काल में जब अबुलफजल द्वारा अकबरनामा के लेखन हेतु सामग्री एकत्रित की गई तब विभिन्न राजपूताना की रियासतों को उनके राज्य, वंश तथा ऐतिहासिक विवरण भेजने के लिए बादशाह द्वारा आदेश दिया गया था। इसी संदर्भ में प्रत्येक राज्यों में ख्यातें लिखी गई। इस प्रकार १६वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से ख्यात लेखन परम्परा आरम्भ हुई, किन्तु इनमें १५वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही ऐतिहासिक वर्णन लिखा हुआ मिलता है। कतिपय ख्यातें उनके मूल रुप में प्राप्त होती है, परन्तु अधिकांश लिपिकारों द्वारा बाद में प्रतिलिपि मिलती हैं। इन प्रतिलिपि, ख्यातों में प्रतिलिपिकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रसंग जोड़कर भी लिख दिये हैं। अत: विभिन्न प्रतिलिपियों के तुलनात्मक अध्ययन और सम्पादित किये पाठों की ख्यात ही इतिहास शोध हेतु उपयोगी कही जा सकती है।
ख्यात लेखन का आधार प्राचीन बहियां समकालीन ऐतिहासिक विवरण, बड़वा-भाटों की वंशावलियां, श्रुति परम्परा से चली आ रही है।ख्यातों में समाज की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक प्रवृष्टियों का विस्तृत दिग्दर्शन ही नहीं होता, अपितु तत्कालीनी और पूर्वकालीक मानव जीवन के आदर्श और सम्पूर्ण व्यवहार का इतिहास-बोध भी प्राप्त होता है। इस प्रकार तात्कालिक भाषा साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान आदि की प्रगति पर भी ख्यात साहित्य में लिखा हुआ प्राप्त होता है।
ख्यातों में ऐतिहासिक दृष्टि से कतिपय दोष भी है। ख्यातें राज्याश्रय में लिखी जाने के कारण अतिश्योक्ति पूर्ण विवरण की सम्भावनाओं से वंचित नहीं है। इनमें अपने-अपने राज्य अथवा आश्रयदाता के वंश का बढ़-चढ़कर महत्व बतलाने की चेष्टायें हमें दिखलाई देती हैं।किन्तु फिर भी उनको एक सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है इस बात में कोई शक नहीं होना चाहिए की इन ख्यातो की वजह से ही हमे राजपूताने के स्वर्णिम काल व् परम्पराओं के बारे में पता चलता है लेख सग्रह कर्ता भवर सिंह रेटा का एक छोटा सा प्रयास है
Sunday, August 23, 2015
Wednesday, May 13, 2015
अकबर कितना है शेतान और केसे बना महान…??????
ये लेख लिख कर में अपने पूर्वजो की तरफ नमन कर
सकू और अपने गुमराह भाईयो को सच्चाई का दर्शन करवा सकू तो बहुत कुछ पा लूंगा खेर
शुरू करते है अपने चचा से जवाहर लाल नेहरु द्वारा लिखित, बहुत प्रशंसित, ऐतिहासिक मिथ्या कथा, ”डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” में जिस इस्लामी धूर्त व क्रूर को अकबर
‘महान’ कहकर स्वागत व
प्रशांसित किया गया वह वास्तविकता में एक धुरीय, व्यक्तित्व
है, जो मार्क्सिटस्ट ब्राण्ड के सैक्यूलरिस्टों के
लिए, आनन्द व उल्लास का स्रोत हैं इन मैकौलेवादी व
मार्क्सिस्टों की जाति के, इतिहासकारों, द्वारा
इस (अकबर) को एक सर्वाधिक परोपकारी उदार, दयालु, सैक्यूलर और ना जाने किन-किन गुणों से सम्पन्न शहंशाह के रूप में
चित्रित किया गया है,,किंतु अकबर को उसी के जीवनीकारों और
उसी के लिखवाये गये इतिहास से ज्यादा अच्छे से समझा जा सकता है…” ”हमने अपना बहुमूल्य समय अपनी शक्ति से, सर्वोत्तम
ढंग से जिहाद, (घिज़ा) युद्ध में ही लगा दिया है और
अमर अल्लाह के सहयोग से, जो हमारे सदैव बढ़ते जाने वाले
साम्राज्य का सहायक है, अविश्वासियों के अधीन बस्तियों
निवासियों, दुर्गों, शहरों
को विजय कर अपने अधीनकरने में लिप्त हैं, कृपालु अल्लाह
उन्हें त्याग दे और तलवार के प्रयोग द्वारा इस्लाम के स्तर को सर्वत्र बढ़ाते हुए,
और बहुत्ववाद के अन्धकार और हिंसक पापों को समाप्त करते हुए, उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों को उन स्थानों में
मूर्तियों को और भारत के अन्य भागों को विध्वंस कर दिया है। अल्लाह की खयाति बढ़े
जिसने, हमें इस उद्देश्य के लिए, मार्ग दिखाया और यदि अल्लाह ने मार्ग न दिखाया होता तो हमें इस
उद्देश्य की पूर्ति के लिए मार्ग ही न मिला होता….।.”
(फतहनामा-ई-चित्तौड़ : अकबर ॥नई दिल्ली,
1972 इतिहास कांग्रेस की कार्य विधि॥ अनु. टिप्पणी
: इश्तिआक अहमद जिज्ली पृष्ठ 350-61)
अपने हरम को सम्पन्न व समृद्ध करने के
लिए अकबर ने अनेकों हिन्दू ओरतो के साथ बलात शादियाँ के नाटक कीया; और वज्रमूर्ख, कुटिल एवम् धूर्त सैक्यूलरिस्टों ने
इसे, अकबर की हिन्दुओं के प्रति स्नेह, आत्मीयता और सहिष्णुता के रूप में चित्रित किया हैं किन्तु इस प्रकार
के प्रदर्शन सदैव एक मार्गीय ही थे। अकबर ने कभी भी, किसी
भी मुगल महिला को,किसी भी हिन्दू को शादी में नहीं दिया।
”अकबर ने अपनी काम वासना की शांति के
लिए गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक अति वीरतापूर्ण
संघर्ष के उपरान्त यह देख कर कि हार निश्चित है, रानी
ने आत्मोगर्ष कर लिया। किन्तु उसकी बहिन को बन्दी बना लिया गया। (आर. सी. मजूमदार, दी मुगल ऐम्पायर, खण्ड VII, पृष्ठ बी.वी. बी.)
राणाप्रताप के विरुद्ध अकबर के
अभियानों के लिए सबसे बड़ा, सबसे अधिक, सशक्त
प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना, जिसकी व्याखया व
स्पष्टीकरण कुरान की अनेकों आयतों ओर अन्य इस्लामी धर्म ग्रंथों में किया गया है। ”उनसे युद्ध करो, जो अल्लाह और कयामत के दिन (अन्तिम
दिन) में विश्वास नहीं रखते, जो कुछ अल्लाह और उसके पैगम्बर ने
निषेध कर रखा है उसका निषेध नहीं करते; जो उस पन्थ पर
नहीं चलते हैं यानी कि उस पन्थ को स्वीकार नहीं करते हैं जो सच का पन्थ है,
और जो उन लोगों को है जिन्हें किताब (कुरान) दी गई है; (और तब तक युद्ध करो) जब तक वे उपहार न दे दें और दीन हीन न बना दिये
जाएँ, पूर्णतः झुका न दिये जाएँ।” (कुरान सूरा 9 आयत 25) अतः
तर्कपूर्वक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजपूत सरदारों और भील आदिवासियों
द्वारा संगठित रूप में हल्दी घाटी में मुगलों के विरुद्ध लड़ा गया युद्ध मात्र एक
शक्ति संघर्ष नहीं था। इस्लामी आतंकवाद व आतताईपन के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध ही
था।
अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर
बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, ‘मुन्तखाव-उत-तवारीख’ में लिखा था कि 1573 में जब शाही फौंजे राणाप्रताप के
विरुद्ध युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो उसने (बदाउनीने) ”युद्ध अभियान में सम्मिलित होकर हिन्दू रक्त से अपनी इस्लामी दाड़ी
को भिगों लेने के विशिष्ट अधिकार के प्रयोग के लिए इस अवसर पर उपस्थित होने में
अपने लिए आदेश प्राप्त करने के लिए शाहन्शाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना
की।” अपने व्यक्तित्व के प्रति इतने सम्मन और निष्ठा,
और जिहाद सम्बन्धी इस्लामी भावना के प्रति निष्ठा से अकबर इतना
प्रसन्न हुआ कि अपनी प्रसन्नता के प्रतीक स्वरूप मुठ्ठी भर सोने की मुहरें उसने
बदाउनी को दे डालीं। (मुन्तखाब-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ 383, वी.
स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ
108) ,,, हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना हुई।
वह विशेषकर अपने सैक्यूलरिस्ट बन्धुओं के निमित्त ही यहाँ उद्धत है। बदाउनी ने
लिखा था- ”हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर से
संलग्न राजपूत, और राणा प्रताप के निमित्त राजपूत
परस्पर युद्ध रत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद
कर पाना असम्भव हो रहा था, तब अकबर की ओर से युद्ध कर रहे बदाउनी
ने, अपने सेना नायकसे पूछा कि वह किस पर गोली चलाये
ताकि शत्रु को ही आघात हो, और वह ही मरे। कमाण्डर आसफ खाँ ने
उत्तर दिया था कि यह बहुत अधिक महत्व की बात नहीं कि गोली किस को लगती है क्योंकि
सभी (दोनों ओर से) युद्ध करने वाले काफ़िर हैं, गोली
जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इसलाम को ही होगा।” (मुन्तखान-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड
II,अकबर दी ग्रेट मुगल : वी. स्मिथ पुनः मुद्रित 1962,हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, दी
मुगल ऐम्पायर : सं. आर. सी. मजूमदार, खण्ड VII,
पृष्ठ 132 तृतीयसंस्करण, बी.
वी. बी.)
अब चलते हैं अकबर की ही ओर और जानते
हैं उसकी तथाकथित “महानताओं” को
कुछ उसके बेटे सलीम उर्फ शेखू उर्फ जहाँगीर की कलम से तो कुछ बेहतरीन तरीकों से
जान पायेंगे उसके जीवनीकार, नवरत्नों में से एक सेनापति व दरबारी
मनसबदार अबुल फज़ल से और अकबर की जीवनी “अकबरनामा” तथा ‘आईन
ऐ अकबरी’ के संदर्भों से –
अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है- “जब भी कभी कोई दरबारी
की पत्नी, या नयी लडकियां शहंशाह की सेवा (यह साधारण सेवा
नहीं है) में जाना चाहती थी तो पहले उसे अपना आवेदन पत्र हरम प्रबंधक के पास भेजना
पड़ता था. फिर यह पत्र महल के अधिकारियों तक पहुँचता था और फिर जाकर उन्हें हरम के
अंदर जाने दिया जाता जहां वे एक महीने तक रखी जाती थीं.”
अब यहाँ देखना चाहिए कि चाटुकार अबुल
फजल भी इस बात को छुपा नहीं सका कि अकबर अपने हरम में दरबारियों, राजाओं और लड़कियों तक को भी महीने के लिए रख लेता था. पूरी
प्रक्रिया को संवैधानिक बनाने के लिए इस धूर्त चाटुकार ने चाल चली है कि स्त्रियाँ
खुद अकबर की सेवा में पत्र भेज कर जाती थीं! इस मूर्ख को इतनी बुद्धि भी नहीं थी
कि ऐसी कौन सी स्त्री होगी जो पति के सामने ही खुल्लम खुल्ला किसी और पुरुष की
सेवा में जाने का आवेदन पत्र दे दे?
मतलब यह है कि वास्तव में अकबर महान
खुद ही आदेश देकर जबरदस्ती किसी को भी अपने हरम में रख लेता था और उनका सतीत्व
नष्ट करता था.
बैरम खान जो अकबर के पिता तुल्य और
संरक्षक था, उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी
अर्थात अपनी माता के तुल्य स्त्री से शादी की.
ग्रीमन के अनुसार अकबर अपनी रखैलों को
अपने दरबारियों में बाँट देता था. औरतों को एक वस्तु की तरह बांटना और खरीदना अकबर
महान बखूबी करता था.
मीना बाजार जो हर नए साल की पहली शाम
को लगता था, इसमें सब स्त्रियों को सज धज कर आने के
आदेश दिए जाते थे और फिर अकबर महान उनमें से किसी को चुन लेते थे..!!
‘नेक दिल’ अकबर
“महान” या जीताजागता
मुसलोईड शैतान ….??
6 नवम्बर 1556 को
14 साल की आयु में ही अकबर ‘महान’ पानीपत की लड़ाई में भाग ले रहा था,
हिंदू राजा हेमू की सेना मुग़ल सेना को खदेड़ रही थी कि अचानक हेमू
को आँख में तीर लगा और वह बेहोश हो गया, उसे मरा सोचकर
उसकी सेना में भगदड़ मच गयी तब हेमू को बेहोशी की हालत में अकबर महान के सामने
लाया गया और इसने ‘बहादुरी से’ राजा
हेमू का सिर काट लिया और तब इसे गाजी के खिताब से नवाजा गया. (गाजी की पदवी इस्लाम
में उसे मिलती है जिसने किसी काफिर को कतल किया हो ऐसे गाजी को जन्नत नसीब होती है
और वहाँ सबसे सुन्दर हूरें इनके लिए बुक होती हैं). हेमू के सिर को काबुल भिजा
दिया गया एवं उसके धड को दिल्ली के दरवाजे से लटका दिया गया ताकि नए आतंकवादी
बादशाह की रहमदिली सब को पता चल सके…इतिहासकार उसे
आजाद भारत में भी महान बता सके..!!
इसके तुरंत बाद जब अकबर महान की सेना
दिल्ली आई तो कटे हुए काफिरों के सिरों से मीनार बनायी गयी जो जीत के जश्न का
प्रतीक है और यह तरीका अकबर महान के पूर्वजों से ही चला आ रहा है.
हेमू के बूढ़े पिता को भी अकबर महान ने
कटवा डाला. और औरतों को उनकी सही जगह अर्थात शाही हरम में भिजवा दिया गया.
अबुल फजल अकबरनामा में लिखता है कि खान
जमन के विद्रोह को दबाने के लिए उसके साथी मोहम्मद मिराक को हथकडियां लगा कर हाथी
के सामने छोड़ दिया गया. हाथी ने उसे सूंड से उठाकर फैंक दिया. ऐसा पांच दिनों तक
चला और उसके बाद उसको मार डाला गया.
चित्तौड़ पर कब्ज़ा करने के बाद अकबर
महान ने तीस हजार नागरिकों का क़त्ल करवाया.
अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से
कुचलवाया. हमजबान की जबान ही कटवा डाली. मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर
दी गयीं. उसके 300 साथी उसके सामने लाये गए और उनके
चेहरे पर गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट
डाला गया. विन्सेंट स्मिथ ने यह लिखा है कि अकबर महान फांसी देना, सिर कटवाना, शरीर के अंग कटवाना, आदि सजाएं भी देते थे.
2 सितम्बर 1573 के
दिन अहमदाबाद में उसने 2000 दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे
ऊंची सिरों की मीनार बनायी. वैसे इसके पहले सबसे ऊंची मीनार बनाने का सौभाग्य भी
अकबर महान के दादा बाबर का ही था. अर्थात कीर्तिमान घर के घर में ही रहा!
अकबरनामा के अनुसार जब बंगाल का दाउद
खान हारा, तो कटे सिरों के आठ मीनार बनाए गए थे. यह फिर
से एक नया कीर्तिमान था. जब दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में
पानी पीने को दिया गया…!!
थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और
पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था. अकबर ने आदेश दिया कि दोनों आपस
में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले. उन मूर्ख आत्मघाती लोगों ने आपस में
ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी. जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने
सैनकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया. और अंत में इसने दोनों तरफ के
लोगों को ही अपने सैनिकों से मरवा डाला. और फिर अकबर महान जोर से हंसा.
हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की नीति
यही थी कि राजपूत ही राजपूतों के विरोध में लड़ें. बादायुनी ने अकबर के सेनापति से
बीच युद्ध में पूछा कि प्रताप के राजपूतों को हमारी तरफ से लड़ रहे राजपूतों से
कैसे अलग पहचानेंगे? तब उसने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है
क्योंकि किसी भी हालत में मरेंगे तो राजपूत ही और फायदा इस्लाम का होगा.
कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग
की मूर्ति तोड़ी और उस स्थान पर नमाज पढ़ी…!!
एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ
गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है. इससे उसको इतना गुस्सा
आया कि नौकर को इस बात के लिए एक मीनार से नीचे फिंकवा दिया.
अगस्त 1600
में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था. न तो वह
किला तोड़ पाया और न ही किले की सेना अकबर को हरा सकी. विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है
कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा. उसने किले के राजा मीरां बहादुर को आमंत्रित
किया और अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा. तब मीरां बहादुर
शान्ति के नाम पर बाहर आया और अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुका पर
अचानक उसे जमीन पर धक्का दिया गया ताकि वह पूरा लेटकर (दण्डवत होकर ही ) सजदा कर
सके क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था…उसको अब पकड़
लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे ,सेनापति ने मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह
पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी.?
तब ऐतिहासिक अकबर ‘महान’ ने बच्चे से पूछा कि क्या तेरा पिता
आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि उसका पिता समर्पण
नहीं करेगा चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए. यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक
को मार डालने का आदेश दिया. इस तरह झूठ के बल पर अकबर महान ने यह किला जीता.
यहाँ ध्यान देना चाहिए कि यह घटना अकबर
की मृत्यु से पांच साल पहले की ही है. अतः कई लोगों का यह कहना कि अकबर बाद में
बदल गया था, एक झूठ बात है.
इसी तरह अपने ताकत के नशे में चूर अकबर
ने बुंदेलखंड की प्रतिष्ठित रानी दुर्गावती से लड़ाई की और लोगों का क़त्ल किया…!!
ऐसे इतिहासकार जिनका अकबर दुलारा और
चहेता है, एक बात नहीं बताते कि कैसे एक ही समय पर राणा
प्रताप और अकबर महान हो सकते थे जबकि दोनों एक दूसरे के घोर विरोधी थे…?
यहाँ तक कि विन्सेंट स्मिथ जैसे अकबर
प्रेमी को भी यह बात माननी पड़ी कि चित्तौड़ पर हमले के पीछे केवल उसकी सब कुछ
जीतने की हवस ही काम कर रही थी. वहीँ दूसरी तरफ महाराणा प्रताप अपने देश के लिए
लड़ रहे थे और कोशिश की कि राजपूतों की इज्जत
मुगलों के हाथ से नीलाम न हो सकें.
शायद इसी लिए अकबर प्रेमी जलील भारतीय ‘इतिहासकारों’
ने राणा को लड़ाकू और अकबर को देश निर्माता ‘महान’
के खिताब से नवाजा है..!! तभी तो किसी कवि ने सही ही लिखा है
अकबर महान अगर, राणा
शैतान तो
शूकर है राजा, नहीं
शेर वनराज है
अकबर आबाद और राणा बर्बाद है तो
हिजड़ों की झोली पुत्र, पौरुष बेकार है
अकबर महाबली और राणा बलहीन तो
कुत्ता चढ़ा है जैसे मस्तक गजराज है
अकबर सम्राट, राणा
छिपता भयभीत तो
हिरण सोचे, सिंह
दल उसका शिकार है
अकबर निर्माता, देश
भारत है उसकी देन
कहना यह जिनका शत बार धिक्कार है
अकबर है प्यारा जिसे राणा स्वीकार नहीं
रगों में पिता का जैसे खून अस्वीकार है…!!
हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर
बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया. असलियत यह है
कि कुरआन के खिलाफ जाकर 36 शादियाँ करना, शराब
पीना, नशा करना, दूसरों
से अपने आगे सजदा करवाना आदि करके भी इस्लाम को अपने दामन से बाँधे रखा ताकि राजनैतिक
फायदा मिल सके. और सबसे मजेदार बात यह है कि वंदे मातरम में शिर्क दिखाने वाले
मुल्ला मौलवी अकबर की शराब, अफीम, 36
बीवियों, और अपने लिए करवाए सजदों में भी इस्लाम को
महफूज़ पाते हैं,, किसी मौलवी ने आज तक यह फतवा नहीं दिया
कि अकबर या बाबर जैसे शराबी और समलैंगिक मुशरिक मुसलमान नहीं हैं और इनके नाम की
मस्जिद हराम है…!!
अकबर ने खुद को दिव्य आदमी के रूप में
पेश किया. उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में “अल्लाह
ओ अकबर” कह कर अभिवादन किया जाए. भोले भाले मुसलमान
सोचते हैं कि वे यह कह कर अल्लाह को बड़ा बता रहे हैं पर अकबर ने अल्लाह के साथ
अपना नाम जोड़कर अपनी दिव्यता फैलानी चाही. अबुल फज़ल के अनुसार अकबर खुद को
सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) की तरह पेश करता था. ऐसा ही इसके लड़के जहांगीर ने
लिखा है.
अकबर ने अपना नया पंथ दीन ए इलाही
चलाया जिसका केवल एक मकसद खुद की बडाई करवाना था. उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को
भी उसकी उदारता की तरह पेश किया!
अकबर को इतना महान बताए जाने का एक
कारण ईसाई इतिहासकारों का यह था कि क्योंकि इसने हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों का ही
जम कर अपमान किया और इस तरह भारत में अंग्रेजों के इसाईयत फैलाने के उद्देश्य में
बड़ा कारण बना. विन्सेंट स्मिथ ने भी इस विषय पर अपनी राय दी है.
जलालुद्दीन नसीरूद्दीन अकबर ‘महान’ भाषा बोलने में बड़ा चतुर था. विन्सेंट
स्मिथ लिखता है कि मीठी भाषा के अलावा उसकी सबसे बड़ी खूबी अपने जीवन में दिखाई
बर्बरता है!
अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से
भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले. जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से
निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है. ये वैसे ही दावे
हैं जैसे मुहम्मद साहब के बारे में हदीसों में किये गए हैं. अकबर के पैरों का पानी
लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी. उसके दरबारियों को तो यह अकबर के नापाक
पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए…!!
अकबर ‘महान’
के नवरत्नों में से एक बुद्धिमान बीरबल शर्मनाक तरीके से एक लड़ाई
में मारा गया. बीरबल अकबर के किस्से असल में मन बहलाव की बातें हैं जिनका
वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं. ध्यान रहे कि ऐसी कहानियाँ दक्षिण भारत में
तेनालीराम के नाम से भी प्रचलित हैं…!!
एक और नवरत्नी रत्न राजा टोडरमल अकबर
का वफादार खजांची और धनसंग्राहक अकाऊंटेंट था तो भी उसकी पूजा की मूर्तियां अकबर
ने तुडवा दीं. इससे टोडरमल को दुःख हुआ और इसने इस्तीफ़ा दे दिया और वाराणसी चला
गया.
अगले रत्न शाह मंसूर दूसरे रत्न अबुल
फजल के हाथों सबसे बड़े रत्न अकबर के आदेश पर मार डाले गए ..!
अकबर ने एक ईसाई पुजारी को एक रूसी
गुलाम का पूरा परिवार भेंट में दिया. इससे पता चलता है कि अकबर गुलाम रखता था और
उन्हें वस्तु की तरह भेंट में दिया और लिया करता था… !!
अकबर ने प्रयागराज (जिसे बाद में इसी
धर्म निरपेक्ष महात्मा ने इलाहबाद नाम दिया था) में गंगा के तटों पर रहने वाली
सारी आबादी का क़त्ल करवा दिया और सब इमारतें गिरा दीं क्योंकि जब उसने इस शहर को
जीता तो लोग उसके इस्तकबाल करने की जगह घरों में छिप गए. यही कारण है कि प्रयागराज
के तटों पर कोई पुरानी इमारत नहीं है.एक बहुत बड़ा झूठ यह है कि फतेहपुर सीकरी
अकबर ने बनवाया था. इसका कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं है. बाकी दरिंदे लुटेरों की
तरह इसने भी पहले सीकरी पर आक्रमण किया और फिर प्रचारित कर दिया कि यह मेरा है.
इसी तरह इसके पोते और इसी की तरह दरिंदे शाहजहाँ ने यह ढोल पिटवाया था कि ताज महल
इसने बनवाया है वह भी अपनी चौथी पत्नी की याद में जो इसके और अपने सत्रहवें बच्चे
को पैदा करने के समय चल बसी थी!
तो ये कुछ उदाहरण थे अकबर “महान” के जीवन से ताकि आपको पता चले कि हमारे
नपुंसक इतिहासकारों की नजरों में महान बनना क्यों हर किसी के बस की बात नहीं. क्या
इतिहासकार और क्या फिल्मकार और क्या कलाकार, सब
एक से एक मक्कार, देशद्रोही, कुल
कलंक, नपुंसक हैं जिन्हें फिल्म बनाते हुए अकबर तो
दीखता है पर महाराणा प्रताप कहीं नहीं दिखता….!!
जहाँगीर ने, अपनी
जीवनी, ”तारीख-ई-सलीमशाही” में
लिखा था कि ”अकबर और जहाँगीर के आधिपत्य में पाँच
से छः लाख की संखया में हिन्दुओं का वध हुआ था।” (तारीख-ई-सलीम
शाही, अनु. प्राइस, पृष्ठ
225-26) ,, गणना
करने की चिंता किये बिना, मानवों के वध एवम्र क्तपात सम्बन्धी
अकबर की मानसिक अभिलाषा के उदय का कारण, इस्लाम के जिहाद
सम्बन्धीसिद्धांत, व्यवहार और भावना में थीं, जिनका पोषण इस्लामी धर्म ग्रन्थ और प्रशासकीय विधि विज्ञान के नियमों
द्वारा होता है। इसी सन्दर्भ में एक और ऐसी ही समान स्वभाव्की घटना वर्णन योग्य
है। प्रथम विश्व व्यापी महायुद्ध में जब ब्रिटिश भारत की सेनायें क्रीमियाँ में
नियुक्त थीं तब ब्रिटिश भारत की सेना के मुस्लिम सैनिकों के पीछे स्थित थे,
हिन्दू सैनिकों पर पीदे से गोलियाँ चला दीं, फलस्वरूप
बहुत से हिन्दू सैनिक मारे गये,मुस्लिम सैनिकों की शिकायत थी कि
जर्मनी के पक्षधर, और जो क्रीमियाँ पर अधिकार किये हुए थे,
उन तुर्कों के विरुद्ध वे युद्ध नहीं करना चाहते थे। इस घटना के बाद
ब्रिटिशों ने ब्रिटिश भारत की सेना के हिन्दू और मुसलमान सैनिकों को युद्ध स्थल पर
कभी भी एक ही पक्ष में, एक साथ, नियुक्त
नहीं किया। इस घटना का वर्णन उस ब्रिटिश अफसर ने स्वयं ही लिखा था जो इस अति
अद्युत, और विशिष्ट, तथा
इस्लामी, घटना का स्वंय प्रत्यक्षदर्शी था (दी इण्डिया
ऑफिस लाइब्रेरी, लण्डन, एम.
एस. एस. 2397) किन्तु हिन्दुओं ने अपने इतिहास से कुछ
भी नहीं सीखा है, अतः ऐसी घटना की पुनरावृत्ति अत्याज्य
है। घटना तुलनात्मक रूप में निकट भूत की ही है जिसमें साम्य वादियों की बहुत अधिक
कटु भागीदारी है,, एक भली भांति सिद्धान्त विशारद
साम्यवादी, विखयात नेता, स्वर्गीय
प्रो. कल्यान दत्त (सी. पी. आई) ने अपनी जीवनी ”आमार
कम्युनिष्ट जीवन” में लिखा था। मुस्लमानों ने अपनी
पाकिस्तान की मांग को सम्पन्न कराने के लिए 16
अगस्त 1946 को ‘प्रत्यक्ष
कार्यवाही’ / Direct Action Plan पर कार्यवाही प्रारम्भ कर दी इसे बाद
में ”कलकत्ता का महान नरसंहार, महान कत्लेआम, कहा गया।” (दी
ग्रेट कैलकट्टा किलिंगस)।
‘जिहाद’ जिसे
प्रत्यक्ष कार्यवाही (डायरेक्ट एक्शन) नाम दिया गया, खिदर
पुर डौकयार्ड के मुस्लिम मजदूरों ने हिन्दू मजदूरों पर आक्रमण कर दिया।
आश्चर्यचकित हिन्दुओं ने वामपंथी टे्रड यूनियन्स की सदस्यता के, जिनके हिन्दू मुसलमान दोनों ही मजदूर थे कार्ड दिखाकर प्राणरक्षा की
भीख मांगी, और कहा कि ”अरे
कौमरैडो (साथियों) तुम हमारा वध क्यों कर रहे हो? हम
सभी एक यूनियन में हैं। ”किन्तु चूँकि इन मुजाहिदों को इस्लाम
का राज्य (दारूल इस्लाम) मजदूरों के राज्य से कहीं अधिक प्रिय है, ”सभी हिन्दुओं का वध कर दिया गया।”
(कल्यान दत्त, ‘आमार
कम्यूनिष्ट जीवन’ (बंगाली) पर्ल पब्लिशर्स, पृष्ठ 10 प्रथम आवृत्ति कलकत्ता 1999) ,इस विशेष घटना के यहाँ वर्णन करने का मेरा उद्देश्य और आशा है,
कि वामपंथी सेना, ”जो व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा सिद्धान्त
बनाने में अधिक सिद्ध हस्त हैं, ”उनके मस्तिष्कों में वास्तविकता,
सच्चाई और सामान्य ज्ञान का कुछ उदय हो जाए।
अकबर के नवरतनों में से एक राजा बीरबल
(1528-1586) (असली नाम:महेश दास या महेश दास भट्ट)
मुगल बादशाह अकबर के प्रशासन में मुगल दरबार का प्रमुख वज़ीर (वज़ीर-ए-आजम) था और
अकबर के परिषद के नौ सलाहकारो में से एक सबसे विश्वस्त सदस्य था जो अकबर के नवरत्न
थे यह संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ नौ रत्न है अकबर के अलावा यह दूसरा व्यक्ति था,
जिसने अकबर की दूषित मानसिकता से उत्पन्न दीन- ए -इलाही धर्म माना था
क्योंकि जलालुद्दीन मौहम्मद अकबर खुद पैगम्बर सरीखा ही बनना चाहता था। अकबर के
दरबार में बीरबल का ज्यादातर कार्य सैन्य और प्रशासनिक थे तथा वह सम्राट का एक
बहुत ही करीबी दोस्त भी था, सम्राट अक्सर बुद्धि और ज्ञान के लिए
बीरबल की सराहना करते थे। ये कई अन्य कहानियो, लोककथाओं
और कथाओ की एक समृद्ध परंपरा का हिस्सा बन गए हैं। यह भी कहा जा सकता है कि अकबर
ने बीरबल को अपने मनोरंजन के लिये अपने पास रखा था। यह बात शायद बीरबल जीवन भर न
जान सके। अकबर अपने राज्य के सभी धर्म के लोगो को सन्तुष्ट रखने के लिये नवरतन की
एक चटनी बनाई थी।
बाबर ने अपनी जीवनी मातृभाषा चागताई
(तुर्की भाषा का पुराना स्वरुप) में लिखी थी। बाद में बाबर के पोते अकबर ने
तुजुक-ए-बाबरी का फारसी भाषा में अब्दुर्रहीम खान-ए-खानां द्वारा हिजरी 998
(1589-90 ई) में अनुवाद कराकर किताब को चित्रों से
सजाया , अकबर ने ईरान के दो मशहूर कलाकारों मीर सच्चीद
अली और अब्द-अस-समद को हिंदुस्तान आने का निमंत्रण भेजा। इन दोनों कलाकारों ने
स्थानीय चित्रकारों की मदद से बाबरनामा के अद्भुत चित्र बनवाए। 145 चित्रों वाला बाबरनामा 1598 ई में बना।
बाबरनामा के चित्रों से मुगलकालीन कला की शुरुआती झलक मिलती है। कहा जाता है कि
दौलत, भवानी, मंसूर, सूरदास, मिस्कीन, फारुख़
चोला और शंकर जैसे 47 कलाकारों की मदद से पांच सचित्र
बाबरनामा तैयार किए गए। इनमें से एक प्रति नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में
मौजूद है जबकि बाकी चार प्रति ब्रिटिश म्यूजियम लंदन, स्टेट
म्यूजियम ऑफ ईस्टर्न कल्चर, मास्को और लंदन के ही विक्टोरियल और
अल्बर्ट म्यूजियम में रखे हुए हैं। नई दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी गई
बाबरनामा की सचित्र पोथी में कुल 378 पन्ने है और
इनमें से 122 पन्नों पर 144
चित्र हैं। बाबर के प्रति भारतीय मुसलमानों का रोष बाबर के जीवन में ही समाप्त न
हुआ बल्कि उसकी मृत्यु के बाद भी चलता रहा। दौलत खां लोदी के देशद्रोही पुत्र
दिलावर खां, जिसने बाबर के भारत आने में सहायता की
थी, को भारतीय मुसलमानों ने कभी नहीं बख्शा। शेरशाह
के काल में जब 1540 ई. में बंगाल का युद्ध विजित करने के
लिए प्रयत्न हुए तो दिलावर खां को मुंगेर के किले में घेर लिया गया। सम्भवत:
शेरशाह ने दिलावर खां को कुछ शर्तों पर समर्पण करने को कहा। पर शेरशाह को सलाह दी
गई कि उसे निश्चित रूप से मार दिया जाए, और यह अच्छा न
होगा कि उसकी कोई मदद की जाए। (देखें- डा. कानूनगो, “शेरशाह
एण्ड हिज टाइम्स, पृ. 219) अत:
उसे मार दिया गया। यानी इस देशद्रोही को बाबर का साथ देने की सजा दी गई।
शेरशाह ने मरते समय अपनी इच्छाओं में
से एक यह इच्छा भी प्रकट की थी कि पानीपत में जहां इब्रााहिम खां लोदी ने बाबर से
भयंकर संघर्ष किया था, वहां इब्रााहिम खां लोदी का मकबरा
बनाया जाए। (पृष्ठ 424)
उल्लेखनीय है कि बाबर की मृत्यु 26 दिसम्बर, 1530 को हो गई थी। सम्भवत: उसे उसके लड़के
कामरान ने ही जहर दिया था। उसके बाद तत्काल किसी को भी सम्राट घोषित नहीं किया
गया। तीन दिन तक इसके लिए राजमहल में कुचक्र तथा षड्यंत्र चलते रहे। बाबर की लाश
तीन दिन तक सड़ती रही। बाद में उसे भारत में न दफना कर काबुल में दफनाया गया।
जिससे अकबर अच्छी तरह वाकिफ था ।
यदि हम तटस्थ इतिहास में जाएं तो
पाएंगे कि मध्ययुग में चीजें अलग थीं। तब, जिन्होंने
हुकूमत की, वे स्पष्टत: विदेशी थे। उन्होंने इस्लाम अपनाने
वाले हिन्दुओं और भारत में बस गए व्यापारियों को ‘हिन्दुस्तानी’
कहा। शासकों ने खुद की पहचान तुर्क और पठान के रूप में ही स्थापित की
और वे विदेशी धरती यानी हिन्दुस्तान पर हुकूमत करने में घमंड भी महसूस करते थे। यह
सच उन हुक्मरानों के ज्यादा निकट है, जिन्होंने
दिल्ली से हुकूमत की। हालांकि वे मजहब से मुसलमान जरूर थे, लेकिन
नस्ल से तुर्क, पठान या अफगान थे। इसी वजह से आम
बोलचाल में मुसलमानों का एक नाम-‘तुर्क’ भी
प्रचलित हो गया । कन्नड़, तेलुगु और उर्दू भाषाओं में मुसलमानों
को ‘तुर्क’ ही कहा गया है।
मध्यकाल में हिन्दी भाषा में मुसलमानों को ‘तुर्क’
ही कहा जाता था। उदाहरण के लिए-‘तुम
तो निरे तुर्क भये’। इस तरह अस्वच्छ या आवारागर्दों को
तुर्क का संबोधन देते हुए हिकारत से देखा जाता था। इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के
1977 संस्करण में लिखा है: ‘1556 से 1605 तक हुकूमत करने वाले अकबर की फौज में
मुगल, ईरानी, तुर्क, उजबेक और अफगान थे।’ उसमें देशी मुसलमानों को जगह कहां थी?
कुछ और उदाहरण देखिए। एक ईरानी गयास बेग अकबर के आखिरी दिनों में
भारत आया था। उसकी बेटी मेहरुन्निसा यानी नूरजहां की शादी जहांगीर से हुई थी। गयास
बेग का बेटा यानी नूरजहां का भाई आसफ खान जहांगीर का वजीरेआजम था। शाहजहां की
हुकूमत में भी वह वजीरेआजम बना रहा। उसका दूसरा बेटा इतिकाद खान 1633 में दिल्ली का सूबेदार था। आसफ खान का बेटा ही वह शाइस्ता खान था,
जिसकी उंगलियां 1663 में शिवाजी के हमले में कट गई थीं। वह
शाहजहां और औरंगजेब की हुकूमतों में अहम ओहदों पर रहा। शाइस्ता खान का बेटा
बुज़ुर्ग उम्मेद खान 1683 से 1692 तक
बिहार का सूबेदार रहा। नूरजहां की भतीजी यानी आसफखान की बेटी मुमताज उल जमानी
शाहजहां की बेगम थी। दूसरी भतीजी एक अन्य वजीरे आजम मुहम्मद जफर को ब्याही थी।
तीसरी भतीजी औरंगजेब के वजीरेआजम असदखां की बेगम बनी थी। एक दौर ऐसा भी आया जब
नूरजहां के रिश्तेदारों के नियंत्रण में मुगलिया हुकूमत का आधा हिस्सा था।
इसी तरह, औरंगजेब
का एक खास सिपहसालार मीर शिहाबुद्दीन अक्तूबर, 1669
में समरकंद से अपनी किस्मत आजमाने दिल्ली दरबार में आया था। मिर्जा मिउज़ा ईरान के
मशहद से आया था। उसकी शादी औरंगजेब की एक साली से हुई थी। उसका बेटा मुसई खान 1688 में सरकारी खजाने का दीवान बना और 1689
में उसे दक्खन का दीवान बनाया गया। इसी तरह, मुहम्मद
अमू खान 1687 में बुखारा से भारत आया था। उसे 1698 में सद्र, 1706 में चिन बहादुर और 1707 में 4000 घुड़सवारों का सालार बनाया गया। ऐसा
ही एक लड़ाकू मीर जुमला था, जो गोलकुण्डा का वजीरेआजम बनने में
कामयाब हुआ। बाद में उसने गोलकुण्डा के सुल्तान से गद्दारी की और शाहजहां के आखिरी
दिनों में मुगलों से आ मिला। उसके बेटे मुहम्मद अमीन खान हाफिज को औरंगजेब ने मीर
बख्शी यानी घुड़सवारों की सेना का प्रमुख बनाया। बाद में उसे सूबेदार बनाकर गुजरात
भेज दिया गया। वह इस पद पर 1672 से 1682 तक
रहा।
भारतीय इतिहास के साथ इस खिलवाड़ के
मुख्य दोषी वे वामपंथी इतिहासकार हैं, जिन्होंने
स्वतंत्रता के बाद नेहरू की सहमति से प्राचीन हिन्दू गौरव को उजागिर करने वाले
इतिहास को या तो काला कर दिया या धुँधला कर दिया और इस गौरव को कम करने वाले
इतिहास-खंडों को प्रमुखता से प्रचारित किया, जो
उनकी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के खाँचे में फिट बैठते थे।
ये तथाकथित इतिहासकार अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय की उपज थे, जिन्होंने नूरुल हसन और इरफान हबीब की
अगुआई में इस प्रकार इतिहास को विकृत किया।भारतीय इतिहास कांग्रेस पर लम्बे समय तक
इनका कब्जा रहा, जिसके कारण इनके द्वारा लिखा या गढ़ा
गया अधूरा और भ्रामक इतिहास ही आधिकारिक तौर पर भारत की नयी पीढ़ी को पढ़ाया जाता
रहा।वे देश के नौनिहालों को यह झूठा ज्ञान दिलाने में सफल रहे कि भारत का सारा
इतिहास केवल पराजयों और गुलामी का इतिहास है और यह कि भारत का सबसे अच्छा समय केवल
तब था जब देश पर मुगल बादशाहों का शासन था। तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ही नहीं नये ‘तथ्यों’ को गढ़कर भी वे यह सिद्ध करना चाहते थे
कि भारत में जो भी गौरवशाली है वह मुगल बादशाहों द्वारा दिया गया है और उनके
विरुद्ध संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि
पथभ्रष्ट थे???
इनकी एकांगी इतिहास दृष्टि इतनी अधिक
मूर्खतापूर्ण थी कि वे आज तक महावीर, बुद्ध, अशोक, चन्द्रगुप्त, चाणक्य
आदि के काल का सही-सही निर्धारण नहीं कर सके हैं। इसी कारण लगभग 1500 वर्षों का लम्बा कालखंड अंधकारपूर्ण काल कहा जाता है, क्योंकि इस अवधि में वास्तव में क्या हुआ और देश का इतिहास क्या था,
उसका कोई पुष्ट प्रमाण कम से कम सरकारी इतिहासकारों के पास उपलब्ध
नहीं है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अलाउद्दीन खिलजी और बख्तियार खिलजी ने
अपनी धर्मांधता के कारण दोनों प्रमुख पुस्तकालय जला डाले थे।
लेकिन बिडम्बना तो यह है कि भारत के
इतिहास के बारे में जो अन्य देशीय संदर्भ एकत्र हो सकते थे, उनको
भी एकत्र करने का ईमानदार प्रयास नहीं किया गया इस कारण आमजन की पहुंच में,
स्कूल कॉलेजों में शोध तक को या पढने, पढाये
जाने मात्र तक को सही व सच्चा मध्यकालीन भारत का पूरा इतिहास अभी भी उपलब्ध नहीं
है।
ध्यान रहे कि इतिहासकारों के लाडले और
सबसे उदारवादी राजा अकबर ने ही सबसे पहले “प्रयागराज”
जैसे काफिर शब्द को बदल कर इलाहबाद कर दिया था।
अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों
का कतल कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर
का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन,
असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह
मंसूर, मानसिंह, कामरान
का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल
मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब मुल्ला जो इसे नापसंद
थे. पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है. और, “समाज
सेवक अकबर महान” ,,, अकबर के शासन में मरने वाले की संपत्ति
बादशाह के नाम पर जब्त कर ली जाती थी और मृतक के घर वालों का उस पर कोई अधिकार
नहीं होता था, अकबर “महान”
ने अपनी माँ के मरने पर उसकी भी संपत्ति अपने कब्जे में ले ली जबकि
उसकी माँ उसे सब परिवार में बांटना चाहती थी ,, अकबर
के चाटुकारों ने राजा विक्रमादित्य के दरबार की कहानियों के आधार पर उसके दरबार और
नौ रत्नों की कहानी घड़ी है. असलियत यह है कि अकबर अपने सब दरबारियों को मूर्ख
समझता था. उसने कहा था कि वह अल्लाह का शुक्रगुजार है कि इसको योग्य दरबारी नहीं
मिले वरना लोग सोचते कि अकबर का राज उसके दरबारी चलाते हैं वह खुद नहीं.
प्रसिद्ध नवरत्न टोडरमल अकबर की लूट का
हिसाब करता था. इसका काम था जजिया न देने वालों की औरतों को हरम का रास्ता
दिखाना.एक और नवरत्न अबुल फजल अकबर का अव्वल दर्जे का चाटुकार था. बाद में जहाँगीर
ने इसे मार डाला.
फैजी नामक रत्न असल में एक साधारण सा
कवि था जिसकी कलम अपने शहंशाह को प्रसन्न करने के लिए ही चलती थी. कुछ इतिहासकार
कहते हैं कि वह अपने समय का भारत का सबसे बड़ा कवि था. आश्चर्य इस बात का है कि यह
सर्वश्रेष्ठ कवि एक अनपढ़ और जाहिल शहंशाह की प्रशंसा का पात्र था! यह ऐसी ही बात
है जैसे कोई अरब का मनुष्य किसी संस्कृत के कवि के भाषा सौंदर्य का गुणगान करता
हो!
अकबर महान की सुंदरता और अच्छी आदतें –
बाबर शराब का शौक़ीन था, इतना कि अधिकतर समय धुत रहता था [बाबरनामा]. हुमायूं अफीम का शौक़ीन
था और इस वजह से बहुत लाचार भी हो गया. अकबर ने ये दोनों आदतें अपने पिता और दादा
से विरासत में लीं. अकबर के दो बच्चे नशाखोरी की आदत के चलते अल्लाह को प्यारे
हुए. पर इतने पर भी इस बात पर तो किसी मुसलमान भाई को शक ही नहीं कि ये सब सच्चे
मुसलमान थे.
कई इतिहासकार अकबर को सबसे सुन्दर आदमी
घोषित करते हैं. विन्सेंट स्मिथ इस सुंदरता का वर्णन यूँ करते हैं-
“अकबर एक औसत दर्जे की लम्बाई का था.
उसके बाएं पैर में लंगड़ापन था. उसका सिर अपने दायें कंधे की तरफ झुका रहता था.
उसकी नाक छोटी थी जिसकी हड्डी बाहर को निकली हुई थी. उसके नाक के नथुने ऐसे दीखते
थे जैसे वो गुस्से में हो. आधे मटर के दाने के बराबर एक मस्सा उसके होंठ और नथुनों
को मिलाता था. वह गहरे रंग का था”
जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर उसे सदा
शेख ही बुलाता था भले ही वह नशे की हालत में हो या चुस्ती की हालत में. इसका मतलब
यह है कि अकबर काफी बार नशे की हालत में रहता था.
अकबर का दरबारी लिखता है कि अकबर ने
इतनी ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी कि वह मेहमानों से बात करता करता भी नींद में गिर
पड़ता था. वह अक्सर ताड़ी पीता था. वह जब ज्यादा पी लेता था तो आपे से बाहर हो
जाता था और पागलो के जैसे हरकत करने लगता..!!
अकबर महान और जजिया कर – इस्लामिक शरीयत के अनुसार किसी भी इस्लामी राज्य में रहने वाले गैर
मुस्लिमों को अगर अपनी संपत्ति और स्त्रियों को छिनने से सुरक्षित रखना होता था तो
उनको इसकी कीमत देनी पड़ती थी जिसे जजिया कहते थे. यानी इसे देकर फिर कोई अल्लाह व
रसूल का गाजी आपकी संपत्ति, बेटी, बहन,
पत्नी आदि को नहीं उठाएगा. कुछ अकबर प्रेमी कहते हैं कि अकबर ने
जजिया खत्म कर दिया था. लेकिन इस बात का इतिहास में एक जगह भी उल्लेख नहीं! केवल
इतना है कि यह जजिया रणथम्भौर के लिए माफ करने की शर्त राखी गयी थी जिसके बदले
वहाँ के हिंदुओं को अपनी स्त्रियों को अकबर के हरम में भिजवाना था! यही कारण बना
की इन मुस्लिम सुल्तानों के काल में हिन्दू स्त्रियाँ जौहर में जलना अधिक पसंद
करती थी.
यह एक सफ़ेद झूठ है कि उसने जजिया खत्म
कर दिया. आखिरकार अकबर जैसा सच्चा मुसलमान जजिया जैसे कुरआन के आदेश को कैसे हटा
सकता था? इतिहास में कोई प्रमाण नहीं की उसने अपने राज्य
में कभी जजिया बंद करवाया हो,,, अब देखिये कि अकबर पर बनी फिल्मों में
इस शराबी, नशाखोर, बलात्कारी,
और लाखों हिंदुओं के हत्यारे अकबर के बारे में क्या दिखाया गया है और
क्या छुपाया. बैरम खान की पत्नी, जो इसकी माता के सामान थी, से इसकी शादी का जिक्र किसी ने नहीं किया. इस जानवर को इस तरह पेश किया
गया है कि जैसे फरिश्ता! जोधाबाई से इसकी शादी की कहानी दिखा दी पर यह नहीं बताया
कि जोधा असल में जहांगीर की पत्नी थी और ये एक विदेशी नोकरानी थी इसको आधुनिक ये
नपुसंक राजकुमारी बताते है औरये दिखाया यह गया कि इसने हिंदू लड़की से शादी करके
उसका धर्म नहीं बदला, यहाँ तक कि उसके लिए उसके महल में
मंदिर बनवाया! असलियत यह है कि बरसों पुराने वफादार टोडरमल की पूजा की मूर्ति भी
जिस अकबर से सहन न हो सकी और उसे झट तोड़ दिया, ऐसे
अकबर ने लाचार लड़की के लिए मंदिर बनवाया, यह दिखाना
धूर्तता की पराकाष्ठा है. पूरी की पूरी कहानियाँ जैसे मुगलों ने हिन्दुस्तान को
अपना घर समझा और इसे प्यार दिया, हेमू का सिर काटने से अकबर का इनकार,
देश की शान्ति और सलामती के लिए जोधा से शादी, उसका
धर्म परिवर्तन न करना, हिंदू रीति से शादी में आग के चारों
तरफ फेरे लेना, राज महल में जोधा का कृष्ण मंदिर और
अकबर का उसके साथ पूजा में खड़े होकर तिलक लगवाना, अकबर
को हिंदुओं को जबरन इस्लाम क़ुबूल करवाने का विरोधी बताना, हिंदुओं
पर से कर हटाना, उसके राज्य में हिंदुओं को भी उसका
प्रशंसक बताना, आदि ऐसी हैं जोन केवल असलियत से कोसों दूर हैं बल्कि इनको ये भी पता
नहीं किसी भी इतिहास की किताब में जोधा नाम किअकबर की पत्नी का उल्लेख नहीं है और रही बात राजा भारमल
द्वारा अकबर को मुर्ख बनाने की तो आज भी गाव में किसी भी लडकी के कन्यादान करने
वाला भी पिता ही होता है और राजा तो सर्व जन का पिता ही होताहै उस पर्सियन दासी का
कन्या दान रजा भारमल ने किया और इस मुर्ख अकबर और इसकी हिजड़ो की फोज ने ये प्रचार
क्र दिया की वो जयपुर राजकुमारी हैजबकि इस घटना को गुरु नानक देव ने कहा की
राजपूतो ने तलवार के साथ साथ कूटनीति का भी प्रयोग करना सीख लिया है प्रसिद्ध
इतिहासकार जूदुनाथ सरकार जिहूने ने जयपुर
राजपरिवार पर २० वर्ष तक की शोध करने के बाद अपनी किताब लिखी उस में भी इसका कही भी जिक्र नहीं किया क्यों की उनको
हकीकत मालूम थी जैसा कि अब आपको पता चल
गयी होंगी. “हिन्दुस्तान मेरी जान तू जान ए
हिन्दोस्तां” जैसे गाने अकबर जैसे बलात्कारी,
और हत्यारे के लिए लिखने वालों और उन्हें दिखाने वालों को उसी के
सामान झूठा और दरिंदा समझा जाना चाहिए… चित्तौड़ में
तीस हजार लोगों का कत्लेआम करने वाला, हिंदू स्त्रियों
को एक के बाद एक अपनी पत्नी या रखैल बनने पर विवश करने वाला, नगरों और गाँवों में जाकर नरसंहार कराकर लोगों के कटे सिरों से मीनार
बनाने वाला, जिस देश के इतिहास में महान, सम्राट, “शान ए हिन्दोस्तां” लिखा जाए और उसे देश का निर्माता कहा जाए कि भारत को एक छत्र के नीचे
उसने खड़ा कर दिया, उस देश का विनाश ही होना चाहिए. वहीं
दूसरी तरफ जो ऐसे दरिंदे, नपुंसक के विरुद्ध धर्म और देश की
रक्षा करता हुआ अपने से कई गुना अधिक सेनाओं से लड़ा, जंगल
जंगल मारा मारा फिरता रहा, अपना राज्य छोड़ा, सब साथियों को छोड़ा, पत्तल पर घास की रोटी खाकर भी जिसने
वैदिक धर्म की अग्नि को तुर्की आंधी से कभी बुझने नहीं दिया, वह महाराणा प्रताप इन इतिहासकारों और फिल्मकारों की दृष्टि में “जान ए हिन्दुस्तान” तो दूर “जान
ए राजस्थान” भी नहीं था! उसे सदा अपने राज्य मेवाड़
की सत्ता के लिए लड़ने वाला एक लड़ाका ही बताया गया जिसके लिए इतिहास की किताबों
में चार पंक्तियाँ ही पर्याप्त हैं. ऐसी मानसिकता और विचारधारा, जिसने हमें अपने असली गौरवशाली इतिहास को आज तक नहीं पढ़ने दिया,
हमारे कातिलों और लुटेरों को महापुरुष बताया और शिवाजी और राणा
प्रताप जैसे धर्म रक्षकों को लुटेरा और स्वार्थी बताया, को आज
अपने पैरों तले रौंदना है. संकल्प कीजिये कि अब आपके घर में अकबर की जगह राणा
प्रताप की चर्चा होगी. क्योंकि इतना सब पता होने पर यदि अब भी कोई अकबर के गीत
गाना चाहता है तो उस देशद्रोही और धर्मद्रोही को कम से कम इस देश में रहने का
अधिकार नहीं होना चाहिए.
अब तो न अकबर न बाबर से वहशी
दरिन्दे कभी पुज न पायें धरा पर
जो नाम इनका ले कोई अपनी जबाँ से
बता देना राणा की तलवार का बल
कोई पूछे कितना था राणा का भाला
तो कहना कि अकबर के जितना था भाला
जो पूछे कोई कैसे उठता था भाला
बता देना हाथों में ज्यों नाचे माला
चलाता था राणा जब रण में ये भाला
उठा देता पांवों को मुग़लों के भाला
जो पूछे कभी क्यों न अकबर लड़ा तो
बता देना कारण था राणा का भाला..!!
‘महान’ अकबर
जब मरा था तो उसके पास दो करोड़ से ज्यादा अशर्फियाँ केवल आगरे के किले में थीं ,
इसी तरह के और खजाने छह और जगह पर भी थे, इसके
बावजूद भी उसने 1595 -1599 की भयानक भुखमरी के समय एक सिक्का भी
देश की सहायता में खर्च नहीं किया..!!
एक बहुत बड़ा झूठ यह है कि फतेहपुर
सीकरी अकबर ने बनवाया था. इसका कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं है. बाकी दरिंदे लुटेरों
की तरह इसने भी पहले सीकरी पर आक्रमण किया और फिर प्रचारित कर दिया कि यह मेरा है.
इसी तरह इसके पोते और इसी की तरह दरिंदे शाहजहाँ ने यह ढोल पिटवाया था कि ताज महल
इसने बनवाया है वह भी अपनी चौथी पत्नी की याद में जो इसके और अपने सत्रहवें बच्चे
को पैदा करने के समय चल बसी थी!
इसी तरह के प्रयास के तहत भारत में
गौरी की जीत और पृथ्वीराज चौहान की हार को वर्तमान प्रचलित इतिहास में एक अलग
अध्याय के नाम से निरूपित किया जाता है। जिसका नाम दिया जाता है-राजपूतों की पराजय
के कारण। राजपूतों की पराजय के लिए मौहम्मद गौरी के चरित्र में चार चांद लग गये
हैं, और जो व्यक्ति नितांत एक लुटेरा और हत्यारा था
उसे बहुत बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है।
डा. शाहिद अहमद ने गोरी के चरित्र और
उसके कार्यों का मूल्यांकन करते हुए उसके भीतर कौटुम्बिक प्रेम की प्रबलता,
व्यक्तियों के चयन में उसके चरित्र की प्रवीणता अर्थात मानव चरित्र का
पारखी होना, गुलामों का आश्रयदाता, स्थिति का परिज्ञान तथा लक्ष्य की प्रधानता, अदम्य
उत्साह तथा धैर्य, उच्च कोटि की महत्वाकांक्षा, वीर योद्घा तथा दूरदर्शी राजनीतिज्ञ, भारत
में मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक, लुटेरा न होकर
एक साम्राज्य का निर्माता, अदभुत प्रशासकीय प्रतिभा से संपन्न
साहित्य तथा कला का प्रेमी, धर्मपरायण आदि गुणों को प्रमुखता देकर
गोरी को प्रशंसित किया है। न्यूनाधिक अन्य इतिहास कारों ने भी लगभग इन्हीं गुणों
को गोरी के भीतर स्थान देकर उसका महिमामण्डन किया है। यदि ये गुण ही किसी व्यक्ति
की महानता के या किसी देश के किसी विशेष भूभाग पर उसकी जीत के निश्चायक प्रमाण हैं
तो ये गुण तो हमारे चरितनायक पृथ्वीराज चौहान में उससे कहीं अधिक गहराई से व्याप्त
थे। अब तनिक पृथ्वीराज चौहान के भीतर देखें कि जो गुण गोरी को महानता दिलाने वाले
बताये गये हैं, वो पृथ्वीराज चौहान में कितने थे?
Note : यहां सभी तथ्य अबुल फजल लिखित आईन ऐ
अकबरी (अकबरनामा) व अन्य जगहों से सीधे
संकलित व संपादित कर प्रस्तुत किये गये है और उपरोक्त लिखित सब ऐतिहासिक तथ्य हैं मैनें संकलन संपादन मात्र कर सही इतिहास और भारत के असली रणनायकों की बहादुरी
भरी वास्तविकता तथा अकबर शैतान की असलियत
को एक विस्तृत, वृहदतम मंच प्रदान करने की कोशिश मात्र
की है ..!!आपका भवर सिंह रेटा
Subscribe to:
Posts (Atom)